झारखंड के दलमा वन्यजीव अभयारण्य के घने जंगलों में पाई जाने वाली कुछ दुर्लभ जड़ी-बूटियां अब रक्तस्राव रोकने और घाव भरने में उपयोगी साबित हो सकती हैं। हाल ही में दवा उद्योग से जुड़े कई प्रतिष्ठित संगठनों ने क्षेत्र में सर्वेक्षण किया और ऐसे पौधों की पहचान की, जिनसे चिकित्सा क्षेत्र में नई दवाइयां विकसित की जा सकती हैं। इनमें खास तौर पर गुवाना लेप्टो स्टैचया (खेरा परोल) और वुडफोर्डिया फुटिकोसा शामिल हैं।
वैज्ञानिकों का कहना है कि इन पौधों में टेनिन नामक तत्व की मात्रा बहुत अधिक पाई जाती है। टेनिन रक्तस्राव रोकने और त्वचा पुनर्निर्माण में अत्यंत प्रभावी माना जाता है।
दलमा अभयारण्य के आसपास लगभग 85 गांव स्थित हैं, जहां के आदिवासी समुदाय आज भी वन आधारित जीवनशैली अपनाते हैं और पारंपरिक उपचार पद्धतियों पर भरोसा रखते हैं। स्थानीय लोग इन पौधों का उपयोग वर्षों से घाव भरने, रक्तस्राव रोकने और अन्य बीमारियों में कर रहे हैं।
स्थानीय निवासियों के अनुसार, “खेरा परोल” के गुणों का पता एक संयोग से चला। बताया जाता है कि एक बार ग्रामीणों ने खरगोश का शिकार किया और उसके मांस के टुकड़े इस पौधे के पत्तों में लपेट दिए। कुछ समय बाद देखा गया कि मांस के टुकड़े आपस में जुड़ गए। इसके बाद इस पौधे को ‘खेरा परोल’ नाम दिया गया, जहां ‘खेरा’ का अर्थ खरगोश और ‘परोल’ का अर्थ पत्ता है।
यह घटना वैज्ञानिकों के लिए भी शोध का विषय बनी। रासायनिक परीक्षण में यह सामने आया कि इसमें टेनिन की मात्रा सामान्य औषधीय पौधों से कई गुना अधिक है। वनस्पति विशेषज्ञ और फॉरेस्टर राजा घोष के अनुसार, ग्रामीणों से मिली जानकारी के आधार पर वन विभाग ने इन पौधों की वैज्ञानिक पहचान और संरक्षण में पहल की है।
देशभर के शोधकर्ताओं को इस दिशा में आमंत्रित किया गया है और दवा कंपनियां भी वन विभाग से संपर्क में हैं। केरल, गुवाहाटी और पुणे की कई फार्मास्युटिकल कंपनियां दलमा क्षेत्र के ग्रामीणों और कर्मचारियों के साथ काम कर रही हैं। यहां औषधीय पौधों पर कार्यशालाएं आयोजित करने और अनुसंधान केंद्र स्थापित करने की योजनाएं बनाई जा रही हैं, ताकि इन दुर्लभ जड़ी-बूटियों का वैज्ञानिक और व्यावसायिक उपयोग सुनिश्चित किया जा सके।